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कुल्हड़ भर इश्क़

: वर

 

काशी हिंदू विश्वविद्यालय की कक्षा में तीन वर्ष बीए के गुजारने के बाद भी सुबोध चौबे जी की इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो सकी थी। यहाँ भी वही हुआ, जो उनकी दसवीं बारहवीं की कक्षाओं में होता आया था। सुबोध चौबे जी कक्षा में सबसे आगे वाली बेंच पर बैठते- एकदम कोने में दीवार से लगकर पूरी शांति से। मास्टर के लगभग हर सवाल का जवाब देने का प्रयास करते थे और फिर लड़कियों की पंक्ति पर एक बार दाँत निपोरते हुए नजर फेर लेते कि कहीं कोई प्रभावित हुए बिना तो नहीं रह गई। उन्हें लगता था एक दिन उनकी इस टिपटिपई से खुश होकर कोई लड़की खुद उनके पास आएगी और उनसे प्यार का इजहार करेगी।

 

परंतु काशी हिंदू विश्वविद्यालय की कक्षाओं में वे ऐसा सोच भी नहीं पाते थे, क्योंकि कला संकाय में छात्र-छात्राओं की एक साथ स्नातक कक्षाएँ नहीं चलती थीं (संशोधन : कला संकाय की स्नातक कक्षाओं में 2017-2018 के सत्र से कुछ पाठ्यक्रमों में देवियों का प्रवेश हो चुका है) सुबोध जी पहले-पहल तो प्रोफेसरों के कुछ सवालों के जवाब भी देते थे, पर थोड़े दिन बाद ही तत्वबोध हो गया कि यहाँ जब कोई कायदे का सुनने वाला ही नहीं, तो काहे इतनी मेहनत की जाए, लड़के तो वैसे ही ससुरे जलते रहते हैं। एक बात तो बताना भूल ही गए, सुबोध जी हिंदी ऑनर्स हैं। ऑनर्स का हिंदी अनुवाद 'प्रतिष्ठा' होता है और सचमुच, यही वो एकमात्र शब्द है जिसे बोलकर वे अपनी छाती फुलाकर बंडी फाड़ देते थे।

 

जहाँ आजकल के लड़के खुद को आईआईटी, मेडिकल, सीए की तैयारी करने वाला बताकर मुहल्लों में चार-पाँच साल जींस फाड़कर आँख मारते चलते हैं, वहीं सुबोध जी केवल बीए बताकर जवाब में निकलने वाले शब्द बीएएएएएएए से बचने के लिए बिना देर किए ऑनर्स जोड़कर बीएचयू मेन कैंपस से बता देते थे। अगर यहाँ बनारस का बन्दा रहा, तो औकात समझ जाता, लेकिन अगर बाहरी होता, तो दो बार भौंहें तानता और मुँह छितराकर कहता बीएचयूयूयूयूय और कामचलाऊ इज्जत भी बख्श देता। सचमुच दिल से एक बात बता दें, सुबोध जी को अपने बीएचयू में पढ़ने का यही गर्व था कि पूरे बनारस में कहीं भी गाड़ी लेकर पकड़े जाओ, तो बीएचयू की आईडी ही डीएल भी है और इंश्योरेंस पेपर भी। बीएचयू के नाम पर इज्जत देने वाले अंकल ऐसे ही इज्जत नहीं बख्शते थे, पूरा शुल्क लेते थे रिव्यू लिखने का ! कब किस सोमवार की रात फोन कर दें- "बाबू हम गाड़ी पकड़ लिए हैं, सुशांत शर्मा को दिखाना है (हम यानी हम लोग, मतलब पाँच से तो किसी कीमत पर कम नहीं) सुबहे तनी जा के पर्चिया लगा देना, हम लोग गंगा जी

 

नहाकर बाबा विश्वनाथ से भेंट करके आएँगे, और हाँ, हम लोगों के भोजन की चिंता मत करना, वहीं मंदिर के बगल में जो अन्नपूर्णा मंदिर वाला भंडारा होता है, वहीं खा लेंगे। तुम कभी खाए हो कि नहीं वहाँ ? अरे! बहुत दिव्य भोजन देता है बाबू, और साफ-सफाई से ये नहीं कि फ्री में खिला रहे, तो नाली में बिठाकर खिला दें। अरे, खूब बढ़िया से टेबल कुर्सी पर बिठाकर खिलाता है। अच्छा, ठीक है बाबू रखते हैं, कल आकर बात करेंगे; मोबाइल में टैरिफ खत्म है, बहुत बिल उठ रहा, टाइम से भोरे चले जाना पर्चिया कटाने "

 

खैर, बीए करते हुए उन्हें अपने स्कूल के दिनों की एक-दो लड़कियाँ मिल ही गई थीं, जो बीएचयू का एडमिशन फॉर्म आने के एक-दो महीने पहले से इंट्रेंस की रात तक बात करती थीं। बाकी सुबोध जी भी पूरा टैक्स वसूलते थे, एक मिनट की जानकारी के लिए 20-25 मिनट तो बात करनी ही पड़ेगी। सुबोध जी पढ़ते-पढ़ते ऊब जाते, तो कहते कि स्साला किसके लिए इतना पढ़ा जाए, क्लास में बताने पर कौनो सुनने वाली भी तो नहीं है। सुबोध जी पूरे छह महीने पेट पीठ एक करके तैयारी करके बीएचयू बीएड की इंट्रेंस परीक्षा निकाल लिए हैं और जीवन में नई उमंग भरने, का कहते हैं, किक लेने, शिक्षा संकाय, कमच्छा चले आए हैं।

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